पढ़े-लिखे लोगों की बेरोजगारी हर दौर में रही है, कम पढ़े-लिखे श्रमिकों का शोषण हर दौर में होता रहा है लेकिन किसी भी दौर का बेरोजगार, किसी भी दौर का श्रमिक या निर्धन तबका इतना अनाथ नहीं रहा जितना इस दौर में है। अनाथ शब्द को आप नेतृत्व के अभाव से जोड़ कर देख सकते हैं।
बीते ढाई-तीन दशकों में उदारीकरण के अच्छे और बुरे जो भी नतीजे सामने आए हैं उनमें सबसे बुरा नतीजा यह है कि राजनीतिक नेतृत्व का चरित्र आम तौर पर दोगला हो गया है। वे उन्हीं लोगों की कीमत पर अपनी राजनीति करने लगे जिनके वोटों की पूंजी उनके राजनीतिक अस्तित्व को आधार देती थी। राजनीतिक जमात के अधिकतर चमकते सितारे कारपोरेट के हितपोषण में अपने हितों की तलाश करने लगे क्योंकि वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण का कारवां जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, कारपोरेट समुदाय उसी अनुपात में समृद्ध और ताकतवर बनता गया।
पैसे की ताकत ने नए दौर की राजनीति का रुख बदल कर खुद को परिभाषित करना शुरू किया। लोगों ने देखा कि पैसे की ताकत क्या होती है।
सत्ता की असल ताकत कहीं और...अदृश्य में शिफ्ट होने लगी और जो ताकतवर नजर आते थे, वास्तविक तौर पर वे पुतले की हैसियत में आने लगे।
लोगों ने देखा कि कोई राजनेता गरीबों के हित बेच कर कैसे देखते-देखते सैकड़ों या हजारों करोड़ का मालिक बन जाता है और तब भी बात गरीबों की ही करता रहता है।
कहने को कोई हमारा नेता था, लेकिन सदन में वह प्रतीक तौर पर ही हमारा प्रतिनिधित्व करता था। उसकी निष्ठा के केंद्र में उसके वोटर नहीं, नए दौर के प्रभु बसने लगे। सरकार बनाने में कौन नेता किस नेता को समर्थन देगा, कौन सी पार्टी किस पार्टी के साथ जाएगी, यह अदृश्य शक्तियां तय करने लगी।
हालांकि, कहने को ये शक्तियां अदृश्य थीं लेकिन समझ रखने वालों की नजरों में सब कुछ दृश्यमान था। वे समझ रहे थे कि राजनीति किस तरह लोगों से दूर होती जा रही है, राजनेता किस तरह ताकतवर कारपोरेट प्रभुओं के चंगुल में सिमटते जा रहे हैं।
वास्तविकताओं की समझ रखने वाले लोगों ने जब जनता के सामने सच रखने की कोशिशें की तो ताकतवरों ने पहला काम यही किया कि जनता के दिलो-दिमाग में उनके प्रति जहर भरना शुरू किया। निर्धनों, श्रमिकों और बेरोजगारों से जुड़े विमर्शों को "अप्रासंगिकताओं का अरण्यरोदन" करार दिया जाने लगा।
नतीजा, 90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के नए दौर की शुरुआत की साथ ही सबसे पहला कहर श्रमिकों पर टूटा। अगली चोट निर्धनों पर पड़ी जिनके लिये बातें तो बहुत सारी की जाती रहीं लेकिन वास्तविकता में उन्हें विकास की प्रक्रिया में बाकायदा हाशिये पर डाल दिया गया।
और...बेरोजगारों के लिये सत्तासीन लोगों का यह जुमला बार-बार दुहराया जाने लगा कि..."सरकार रोजगार देने का कोई दफ्तर नहीं है।"
सरकारी पदों में कटौतियों का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने रुकने का नाम तो नहीं ही लिया, जख्मों पर नमक की तरह नेताओं का यह जुमला भी खूब उछलने लगा कि..."युवा नौकरी खोजने वाले नहीं, रोजगार देने वाले बनें।" मुक्त होती आर्थिकी और खुलते बाजार में यह जुमला सैद्धांतिक रूप से बहुत अतार्किक भी नहीं लगता था।
लेकिन, भारत यूरोप नहीं था। इसकी अपार जनसंख्या के अपने संकट थे जिन्हें बढाया गुणवत्ता से रहित शिक्षा ने। 1990 के बाद भारत के निर्धन इलाकों में सरकारी शिक्षा की जो दुर्गति हुई है उसका उदाहरण पूरी दुनिया में शायद ही कहीं और मिले।
इधर...निजी संस्थानों की लूटमारी ने तकनीकी शिक्षा का सत्यानाश कर दिया और भारत इस मायने में अनोखा देश बन गया जहाँ तकनीकी ग्रेजुएट की बेरोजगारी आनुपातिक रूप से सबसे अधिक हो गई और चपरासी की नौकरी के लिये भी बी टेक और एमबीए आदि लाइनें लगाने लगे।
निजी पूंजी से संचालित अधिकतर संस्थानों ने पहले तो घटिया शिक्षा दे कर युवाओं को छला और डिग्री दे कर संस्थान से विदा करने के बाद उन्हीं पूंजीपतियों के सबसे बड़े संगठन ने घोषणा की कि..."भारत के 75 प्रतिशत तकनीकी ग्रेजुएट नौकरी देने के लायक नहीं।"
किसी ने उन तकनीकी शिक्षा संस्थानों को या उनके मालिकों को सजा देने की बात नहीं की जिन्होंने लाखों रुपये ऐंठ कर बदले में इन युवाओं की जिंदगियां बर्बाद की थीं।
राजनीतिक नेतृत्व इस लूटमार में अपना हिस्सा पा कर खुश होता रहा क्योंकि बहुत सारे ऐसे संस्थानों के मालिकाना हक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनके पास भी थे।
बदलते दौर में राजनीति ने सबसे पहले जिस चीज से पीछा छुड़ाया वह था विचार। विचार से रहित राजनीति निर्धनों, श्रमिकों और बेरोजगारों के लिये कितनी बांझ साबित हो सकती है, आज का परिदृश्य इसका उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है।
राजनीति में विचार जब नेपथ्य में चले जाते हैं तो व्यक्ति महत्वपूर्ण हो जाता है और कोई भी राजनीतिक दल विचार आधारित नहीं, व्यक्ति आधारित रह जाता है। इसका सबसे अधिक खामियाजा इस देश के दलितों और पिछड़ों ने भुगता जिनके सवालों को लेकर जन्म लेने वाली पार्टियां विचारों से दूर होकर व्यक्ति आधारित बन गई और सिवाय कुछ खास तबकों में नवसामन्तों को जन्म देने के, इन पार्टियों ने अपने समर्थन आधारों का कुछ खास भला नहीं किया।
उदारीकरण, जो अंततः कारपोरेटीकरण के नग्न रूप में सामने आया, ढाई-तीन दशकों की यात्रा पूरी कर चुका है। इसने हमें समझाया है कि नवउपनिवेशवाद किसे कहते हैं, इसने हमें दिखाया है कि गरीबों की बात करते हुए राजनीतिक सफलताएं प्राप्त करता राजनेता किस तरह गरीबों के हितों की कीमत पर व्यवस्था के वास्तविक प्रभुओं के हित साधता है।
बेरोजगारों की मति को भ्रष्ट करने के लिये, शोषितों की बुद्धि को कुंठित और भ्रमित करने के लिये पूरा तंत्र सक्रिय है ताकि विरोध की कोई चिंगारी किसी विद्रोह का रूप न ले ले।
विमर्शों के मुद्दे और उनके दायरे कोई और तय कर रहा है। श्रम कानूनों में निरंतर होते अमानवीय बदलावों का कोई नोटिस तक नहीं ले रहा और बेरोजगारी खुद बेरोजगारों के लिये ही कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गई है।
अजब बनता जा रहा है हमारा देश, गजब का है यह दौर। विरोधाभासों से भरा...जहां बकरा कसाई की जयजयकार कर रहा है, जहां वास्तविक सत्य पर कृत्रिम सत्य का आवरण नजरों को भ्रमित कर अंधेरों को भी उजालों के रूप में सामने ला रहा है।
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